कविता लिखी नहीं जाती,स्वतः लिख जाती है…

Sunday 29 January, 2012

जीवन है बना उनके लिए कुरूप

हर रोज़ ही दिखते हैं
जीवन के रूप
हर रोज़ ही लगते हैं
वो कितने कुरूप
हम सोते हैं बंद कमरो में जब
बाहर बिखरे होते हैं,
जाने कितने ही सच।
न ठण्ड की सिकुड़न,न गरमी की ताप
बारिश भी उन्हें,लगती नहीं अभिशाप।
जिंदा हैं वो,ये जानते हैं हम
उन्हे नहीं अहसास! है यही गम।
गंदे हैं वो,हाँ चोर हैं वो
भिखारी ही नहीं,नशाखोर हैं वो।
न जाने हमने कितने,हैं पाले भरम
नहीं देख पाते कभी उनका मरम।
रहते हैं बंद गाड़ी,बंद कमरो में हम
बंद है आत्मा और नज़र भी बंद।
हैं निर्वस्त्र मन से,पर देखते उन्हें
वो सूखा बदन,वो देह ताप धूप
जीवन ने दिया है उन्हे ये रूप।
वो क्या हैं ये तो जाना नहीं मगर
यूँ ही कट जाएगा उनका सफ़र
न चाहत है कोई न कोई है भूख
जीवन है बना उनके लिए कुरूप…
सितम्बर 25, 2011

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