कविता लिखी नहीं जाती,स्वतः लिख जाती है…

Tuesday 31 January, 2012

घना कोहरा

जब भी दिखता है घना कोहरा
यूँ लगता है जीवन का रूप दिख गया
घना है बहुत, पर साफ भी बहुत
न छुपने छुपाने को कुछ रह गया।
दूर से लगे, न कुछ दिख रहा
गर घुसते चलें तो वो छँट भी रहा
कभी लगे घना कभी बहुत गहन
फिर भी है उसे,चीरती सूरज की किरण
होता अपने चरम पर, फिर भी ख़त्म होता
पार करना उसे यूँ न आसान होता
फिर भी धीरे- धीरे सब करते ही जाते
जीवन से कोहरे को हटाते ही जाते
है बड़ा ही ढीठ,आ जाता बार-बार
जीवन भी अडिग,सहता कोहरे का प्रहार
भर कर नया हौसला बढ़ते ही जाना है
हर एक के जीवन से,कोहरे को मिटाना है।
दिसम्बर 26, 2011 

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