कविता लिखी नहीं जाती,स्वतः लिख जाती है…

Saturday 17 March, 2012

मौत या मुक्ति


सुना था वो चुपके से दबे पाँव आती है
पर बिन बताए साथ ले जाती है,पता न था।
सुना था शरीर जड़वत जिंदा लाश बन जाता है
आत्मा से शरीर को ये खबर न हो,पता न था।
सुना था सुंदर घना वृक्ष भी पल में सूख जाता है
पर इतनी तेजी से कि महसूस ही न हो,पता न था।
आँखों से नमी चली जाती-पथरा जाती हैं वो सुना था
पथराई पुतलियों में हजारों सवाल जिंदा हों,पता न था।
सब कह तो रहे हैं वो आई संग ले गई अपने़
वक्त से पहले ही ले लेगी वो जाँ,पता न था।

Wednesday 14 March, 2012

अपनी ही तलाश में…

जीवन हर पल नया होता है इसलिए इसे किसी भी एक रूप में परिभाषित नहीं किया जा सकता। हर दिन के अलग-अलग अनुभव,कभी अच्छे तो कभी बुरे और कभी कुछ खास नहीं,सामान्य। यह तो सभी जानते हैं कि यही उतार-चढ़ाव जीवन का रूप हैं,यही जीवन है पर फिर भी सदा यही समझ नहीं आता कि कौन से रूप को जीवन कहा जाए और यदि ये रूप ही जीवन हैं तो फिर जीवन का अपना अस्तित्व कया है? क्या वो स्वयं अस्तित्वहीन है और अभी वो अपनी ही तलाश में है। अनेकानेक सवाल उपजते हैं मन मे जवाब की तलाश में। अनेकों रूप तो दिखते हैं पर जीवन नहीं कयोंकि इन रूपों की अपनी वजह है,अपना वजूद है अतः ये जीवन नहीं। इनका स्वतंत्र रूप ही इनकी पहचान है और ‘रूप’ में आप सुख-दुख,हास्य-क्रोध,अमीरी-गरीबी जैसी हजारों भावनायें महसूस कर सकते हैं,जिनके आधार पर जीवन के मायने तलाशने लगते हैं-किंतु ‘जीवन’ जिसकी स्वयं की कोई पहचान नहीं उसके मायने ?
‘हम खुश हैं तो जीवन अच्छा हम दुखी जीवन बुरा’यही सब मानते हैं लेकिन अच्छा या बुरा हमसे जुड़ा है जीवन से नहीं फिर इस जीवन के विषय में इतनी चर्चा क्यों,हर ज़ुबाँ पर इसी का नाम क्यों।
शायद! अस्तित्वहीन चीज़ें अपने अस्तित्व की पहचान के लिए अधिक शोर मचाती हैं ताकि कोई तो उन्हें उनकी पहचान एक नाम दिला सके,और जीवन इसमें सर्वोपरि है तभी वो हर रूप,हर बात,हर क्षण खुद को अपनी मौजूदगी बताता है और अपने होने की शिनाख़्त चाहता है। तरस आता है जीवन पर,इसकी तमाम कोशिशों पर जो भटक रही हैं अपनी ही तलाश में…