बेमाने से लगते हैं कभी सारे ही रिश्ते
जिन्हे अपनी जान,अपना हम समझते।
फ़िक्र है उन्हें ये गुमा सदा रहता
भेद खुलता जब दिल काँच सा बिखरता
ज़रूरत की खातिर ही बनते हैं रिश्ते
अपना कोई वजूद नहीं रखते ये रिश्ते
समाज की बेदी पर हर रोज नये सजते
सूख कर फिर शाख के पत्ते से गिरते
कब,कहाँ कुचले न कोई देख पाता
खु़द ही दफ़न होते और खु़द ही फिर रोते
नम आँखों से फिर किसी चाह को खोजते
सहारे को अपने हम रिश्ते हैं जोड़ते…
अक्टूबर 11, 2011
जिन्हे अपनी जान,अपना हम समझते।
फ़िक्र है उन्हें ये गुमा सदा रहता
भेद खुलता जब दिल काँच सा बिखरता
ज़रूरत की खातिर ही बनते हैं रिश्ते
अपना कोई वजूद नहीं रखते ये रिश्ते
समाज की बेदी पर हर रोज नये सजते
सूख कर फिर शाख के पत्ते से गिरते
कब,कहाँ कुचले न कोई देख पाता
खु़द ही दफ़न होते और खु़द ही फिर रोते
नम आँखों से फिर किसी चाह को खोजते
सहारे को अपने हम रिश्ते हैं जोड़ते…
अक्टूबर 11, 2011
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