कविता लिखी नहीं जाती,स्वतः लिख जाती है…

Wednesday 29 February, 2012

शाम का वक्त


शाम का वक्त झील का किनारा
स्याह सा पानी,उतरा है दिल में
रूमानियत से भरी हवाएँ चूमती
मद्ध सी किरणें,यूँ लहरों पे पड़ती
समा ही हसीं है न नज़र कहीं हटती।
तीरे पे बत्तखों का इठला के आना
खोल पंख अपने,अदा से झिटक जाना
उफ ये मदहोशियत अजब सा जादू है
देख कर नज़रें,बस!!महसूस करतीं।
इक छोटा सा टुकड़ा बहता खुद आया
पल भर रुका,था कहीं टकराया
फिर इक लहर वो चल पड़ा उधर
इसी में पूरा जीवन नज़र आया।
शाम का वक्त किनारा झील का
संग अपने सुखद अहसास ले आया…