कविता लिखी नहीं जाती,स्वतः लिख जाती है…

Monday 22 October, 2012

हाँ स्त्री हूँ मै…


पुरुषत्व को जोड़ती
गहन गुफाओं में पनाह देती
स्त्री हूँ मै ।
एक नई स्रष्टि रचती
पहाड़ों से नदिया बहाती
स्त्री हूँ मै ।
इमारतों को बदल घर में
प्रेम की छाँव देती
स्त्री हूँ मै ।
अतिथि देवो भव,संस्कारों
को पिरोती पीढ़ी दर पीढ़ी
स्त्री हूँ मै ।
पिरोती समाज की हर रीत को
चटकती,बिखरती माला सी
स्त्री हूँ मै ।
हाँथों में सजा कर पूजा की थाली
आँखों में गंगा,ह्रदय में दुर्गा
स्त्री हूँ मै ।
देखो ! न दिखूँ जहाँ मै
वहाँ गौर से
सुनो ! न सुनाई दे जो
आवाज़ मेरी उसे
जवालामुखी सी बेहद शांत
स्त्री हूँ मै ।
सदियों से समाज मुझे समझाए जाए
जबकि अब तलक न ये खुद समझ पाए
स्रष्टि कर्ता ही नहीं
सम्पूर्ण स्रष्टि हूँ मै
हाँ ! स्त्री हूँ मै ….

4 comments:

  1. स्त्री की सटीक पहचान बताती एक अच्छी रचना !!

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  2. सम्पूर्ण सृष्टि हूँ मैं ...
    स्त्री हूँ मैं !
    इसी आत्मविश्वास की आवश्यकता है !
    सुन्दर !

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  3. वाह बहुत सुंदर ...ब्लॉग जगत में आपका स्वागत है ...

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  4. अति सुंदर कविता , जिंदगी के साथ साथ स्त्री को अपने आप की पहचान करवाती है | विशाल अनुभव का विस्तार है |

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