कविता लिखी नहीं जाती,स्वतः लिख जाती है…

Sunday 29 January, 2012

लुभाते कार्टून

कार्टून नज़र आते हैं हमें
ज़िंदगी की तरह
कुछ टेढ़े-कुछ मेढ़े
कुछ सुलझे कुछ अनसुलझे
कार्टून बहुत भाते हैं हमें
उनका हँसना-रोना कई तरह से
मुँह बनाना,है लुभाता हमें
देखकर उन्हें
आना हँसी का
बहुत गहरे बचपन की
याद दिलाता है जब
खाली पड़ी स्लेट पर
चॉक के सहारे
न जाने कितने कार्टून
स्वतः बन जाते थे।
माँ-पापा सब बहुत खुश
नजर आते थे-समय बदला
और छूटा साथ
बचपन का
शेष रह गईं सिर्फ़
स्मृतियाँ।
ओश सी ठण्डी और कोमल.
आज जब भी दिखते हैं
कागज़ पर बने असंख्य कार्टून
ये सहस ही आभास
कराते हैं ज़िंदगी का,
उस यथार्थ का जो गुज़रता है रोज़
हमारी गली से
उस समय यदि हम देखते
हैं आइना तो
अपना ही चेहरा कार्टून
नज़र आता है।
कोई फ़र्क नहीं,बिल्कुल
स्लेट या कागज़ पर बने कार्टून जैसा।
दिन भर की भागदौड़ और उलझनें
धीरे-धीरे सिसकती दिल की
धड़कनें-जब तेज़ होती हैं
हम रोते हैं,हँसते हैं या
गाते हैं-
सच कहें तो उस वक्त
सभी कार्टून नज़र आते हैं…

जुलाई 27, 2011

No comments:

Post a Comment