कविता लिखी नहीं जाती,स्वतः लिख जाती है…

Tuesday 21 February, 2012

मन बस यूँ ही मुस्काता है

बचपन से ही चलती गाड़ी से
सड़कों को देखना भाता है हमें
लगता था कि सड़क भाग रही है
और हम पीछे छूट रहे
बड़ा अचरज होता था तब।
कभी दूर सड़क पर पानी का दिखना
मृग तृष्णा का अर्थ,तब पता ही न था
जीवन के सबसे बड़े अजूबे
तब यही तो लगते थे।
आज यूँ बड़े हो,सब समझ तो गए
पर वो नासमझी के अचरज
मन खुद को वहीं कहीं पाता है
हम नहीं,सड़क चल रही
पेड़-पौधे चल रहे,
सोच इन यादों को
मन बस यूँ ही मुस्काता है।

1 comment:

  1. आजा मेरे बचपन, सिर्फ एक बार फिर से आजा.मैं तेरी अंगड़ाई लूगा.
    पर.
    आता नहीं दुबारा गुजरा हुआ ज़माना.
    मधुर यादों की छुवन है. अच्छी रचना है.

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