कविता लिखी नहीं जाती,स्वतः लिख जाती है…

Tuesday 14 February, 2012

तीखा है प्यार

तीखा है प्यार,असर कितना मीठा
घुलती हुई गुड़ की ढली के जैसा
न सख़्त है बहुत न बेहद नरम
ज़रा सी ताप-पिघल जाता है प्यार।
जाने कहाँ से उपजता,अहसास है
बीज है न बेढ़,न कोई खाद है
फिर भी लहलहाती फसल है प्यार।
ग़म आँखें भी हैं,कभी खुशी नम
हर ज़ख़्म पे लगे चाहत का मरहम
तासीर वेदना की घटाता है प्यार।
तूफ़ाँ भी कम है,हलचल-ए-इश्क में
रूह से जिस्म तक बवंडर का रुख़
एक क्षण में बदल देता है प्यार।
तीखा है प्यार-असर कितना मीठा…

3 comments:

  1. प्यार एक रूप अनेक...

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  2. Bahut khub,achchhi lagi...

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  3. प्यार क्या है जमाने को समझाऊ क्या?
    इक बदन में दो-दो रूह आ गयी हों.
    एक खट्टा -मीठा एहसास
    ऐसा ही होता है.

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