न आँधी है कोई,
न ही हवाएँ हैं तेज़
हल्की सी सरसराहट
साथ उड़ा ले गई।
न ही हवाएँ हैं तेज़
हल्की सी सरसराहट
साथ उड़ा ले गई।
न हुई बारिश कहीं
न बादल ही घिरे
नमी थी ज़रा सी
संग बहा ले गई।
न बादल ही घिरे
नमी थी ज़रा सी
संग बहा ले गई।
न सर पे हाँथ था कोई
न बाँहो में जकड़ा कोई
फिर भी आत्मा कहीं
गहरे समा ही गई।
न बाँहो में जकड़ा कोई
फिर भी आत्मा कहीं
गहरे समा ही गई।
न तो शोरगुल था
न घिरी थी ख़ामोशी
तन्हाइयाँ थीं फैली मगर
रूह को हँसा ही गई।
न घिरी थी ख़ामोशी
तन्हाइयाँ थीं फैली मगर
रूह को हँसा ही गई।
न सोए थे गहरी नींद में
न कोशिश थी जगने की
फिर कैसी जगी आरज़ू
कलम चला ही गई।
न कोशिश थी जगने की
फिर कैसी जगी आरज़ू
कलम चला ही गई।
आपकी कविता ने मेरी कलम को भी प्रेरित कर दिया
ReplyDeleteकब जागेगी आरज़ू
कब कहेगा मन
कब आयंगे भाव
कब चलेगी कलम
पता नहीं चलता
जब भी चलती
रुकती नहीं कलम
जोडती शब्दों को
उकेरती भावों को
लेती आकार
रचती कविता
मिलती संतुष्टी
आत्मा को
न सोए थे गहरी नींद में
ReplyDeleteन कोशिश थी जगने की
फिर कैसी जगी आरज़ू
कलम चला ही गई।
बहुत ही बढ़िया।
सादर
बहुत ही सुनदर बिरोधाभास ।
ReplyDeleteबेहद खुबसूरत लिखा है...
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