कविता लिखी नहीं जाती,स्वतः लिख जाती है…

Tuesday, 20 March 2012

ये हुआ क्या…


न आँधी है कोई,
न ही हवाएँ हैं तेज़
हल्की सी सरसराहट
साथ उड़ा ले गई।
न हुई बारिश कहीं
न बादल ही घिरे
नमी थी ज़रा सी
संग बहा ले गई।
न सर पे हाँथ था कोई
न बाँहो में जकड़ा कोई
फिर भी आत्मा कहीं
गहरे समा ही गई।
न तो शोरगुल था
न घिरी थी ख़ामोशी
तन्हाइयाँ थीं फैली मगर
रूह को हँसा ही गई।
न सोए थे गहरी नींद में
न कोशिश थी जगने की
फिर कैसी जगी आरज़ू
कलम चला ही गई।

4 comments:

  1. आपकी कविता ने मेरी कलम को भी प्रेरित कर दिया
    कब जागेगी आरज़ू
    कब कहेगा मन
    कब आयंगे भाव
    कब चलेगी कलम
    पता नहीं चलता
    जब भी चलती
    रुकती नहीं कलम
    जोडती शब्दों को
    उकेरती भावों को
    लेती आकार
    रचती कविता
    मिलती संतुष्टी
    आत्मा को

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  2. न सोए थे गहरी नींद में
    न कोशिश थी जगने की
    फिर कैसी जगी आरज़ू
    कलम चला ही गई।

    बहुत ही बढ़िया।

    सादर

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  3. बहुत ही सुनदर बिरोधाभास ।

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  4. बेहद खुबसूरत लिखा है...

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