कविता लिखी नहीं जाती,स्वतः लिख जाती है…

Tuesday, 3 April 2012

साँसों का लम्हा रुका सा रहा


काँधे पे सर कुछ झुका सा रहा
साँसों का लम्हा रुका सा रहा।
बंद पलकें रूह में कुछ समा सा रहा
कपकपाते लबों का फ़साना रहा।
खुशबू-ए-जिस्म की मदहोशियत न पूछो
साँसों में तेरी साँसों का पहरा सा रहा।
परछाइयां भी हसीन लगने लगीं
इश्क का कुछ ऐसा नशा सा रहा।
गहराइयाँ थीं इतनी-सागर भी कम
था लम्हा मगर,जीवन जिया सा रहा।